प्राकृतिक खेती भारत की पौराणिक परंपरागत तकनीक है। जिसे वर्त्तमान जरुरत के मुताबिक तकनीकी संसोधन के साथ बढ़ावा दिया जा रहा है। इस विषय पर शोध परिणाम की नितांत कमी है। भूमि की घटती उर्वरता एवं प्रदुषण एवं खाद्य सामग्री की गुणवत्ता में सुधार हेतु प्राकृतिक खेती पर लंबी अवधि तक गहन शोध की आवश्यकता है। प्राकृतिक खेती को धरातल में आगे बढ़ाने में आबादी के मुताबिक खाद्यान उत्पादन को बनाये रखने और टिकाऊ खेती पर विशेष ध्यान रखनी होगी। उक्त विचार बतौर मुख्य अतिथि डीन एग्रीकल्चर डॉ एसके पाल ने प्राकृतिक खेती में तकनीकी प्रबंधन पर तीन दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन के अवसर पर कही।
मौके पर विशिष्ट अतिथि डीन वेटनरी डॉ सुशील प्रसाद ने प्राकृतिक खेती में पशुधन संसाधन की महत्ता पर प्रकाश डाला। भूमि प्रदुषण एवं खाद्य गुणवत्ता के संरक्षण एवं प्रबंधन पर विशेष ध्यान देने पर बल दिया।
स्वागत भाषण में निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ जगरनाथ उराँव ने कहा कि भारत सरकार के उपक्रम आईसीएआर के सौजन्य से राज्य के रांची, गुमला, लातेहार, रामगढ, बोकारो, गढ़वा, सिमडेगा, गोड्डा एवं साहिबगंज जिलों में प्राकृतिक खेती पर 4 वर्षीय परियोजना चलाया जा रहा है। इस विषय से राज्य के सभी जिलों के कृषि विज्ञान केन्द्रों के वैज्ञानिकों को अवगत कराने के लिए यह प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया है।
कार्यक्रम का संचालन एवं धन्यवाद डॉ रंजय कुमार सिंह ने दी। कार्यक्रम में राज्य के सभी 24 जिलों में कार्यरत कृषि विज्ञान केन्द्रों के वरीय वैज्ञानिक एवं प्रधान, वैज्ञानिक (उद्यान, शस्य, मृदा विज्ञान, कृषि अभियंत्रण, कृषि प्रसार) तथा विभिन्न कृषि महाविद्यालय के वैज्ञानिकों सहित कुल 45 प्रतिभागी भाग ले रहे है।
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