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BAU के वैज्ञानिकों ने सुकर की नई प्रजाति ‘बांडा’ की खोज की, झारखंड के 90 हजार पशुपालकों की बढ़ेगी आमदनी

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बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक किसानों की आर्थिक आमदनी के लिए लगातार नई खोज में जुटे रहते है। इसी क्रम में वैज्ञानिकों ने सुकर की नई प्रजाति की खोज की है। जिससे राज्य के 90 हजार सुकरपालकों की आमदनी बढ़ने की उम्मीद है। यह नस्ल एक वर्ष में करीब 20-25 कि. ग्रा. का हो जाता है और एक बार में चार बच्चे देने की क्षमता होती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) से अधिकृत राष्ट्रीय पशु अनुवांशिकी संसाधन ब्यूरो, करनाल (हरियाणा) ने हाल में पूरे देश में खोजी गई 10 नई पशु प्रजाति को पंजीकृत किया है। इनमें गाय की कटहानी, संचोरी मासिलम, भैंस की पुर्नाथाडी, बकरी की सोजात, गुजारी और करानौली प्रजाति शामिल है। जबकि सुकर की बांडा, मणिपुरी ब्लैक और वाक चमबिल प्रजातियां भी शामिल है।

सुकर की नई प्रजाति ‘बांडा’ बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) के वैज्ञानिकों की ओर से खोजी गयी नस्ल है। बीएयू के पशु चिकित्सा संकाय के वैज्ञानिक डॉ रविन्द्र कुमार ने 8-10 वर्षाे के अथक प्रयास और शोध से इस नई प्रजाति की खोज की है। डॉ कुमार के प्रयासों से ही राष्ट्रीय पशु अनुवांशिकी संसाधन ब्यूरो ने ‘बांडा’ को पंजीकृत किया है। जिसे एक्ससेशन संख्या इंडिया-पिग-2500-09011 दी गयी है। इसे झारखंड राज्य के लिए अनुकूल और उपयुक्त बताया है।

13 प्रजाति की हो चुकी है खोज
देश में अबतक वैज्ञानिकों द्वारा सुकर की कुल 13 प्रजाति की खोज की जा चुकी है, जिसे राष्ट्रीय पशु अनुवांशिकी संसाधन ब्यूरो की ओर से पंजीकृत करने से पहचान मिली है। ग्रामीण स्तर पर ‘बांडा’ की मांग ज्यादा होने से सुकरपालकों को इसका बढ़िया मूल्य मिलता है।

90 हजार सुकरपालकों को मिलेगा फायदा

बीएयू के सुकर प्रजनन फार्म प्रभारी डॉ रविन्द्र कुमार बताते है कि ‘बांडा’ प्रजाति झारखंड राज्य के अलग – अलग जिलों मुख्यतः रांची, गुमला, लोहरदगा, बोकारो, धनबाद, रामगढ, पश्चिम सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम, सिमडेगा एवं गोड्डा आदि में बहुतायत संख्या में मिलती है. झारखंड में इस नस्ल की संख्या करीब 3 लाख है, जो पूरे राज्य में सुकर की संख्या का करीब 70 प्रतिशत है। करीब 90 हजार सुकरपालक इस नस्ल के पालन से जीविकोपार्जन और अतिरिक्त लाभ कमाते है।

छोटे आकार की नस्ल है ‘बांडा’
‘बांडा’ सुकर की छोटे आकार की नस्ल है. इसका रंग काला, कान छोटे और खड़े, थूथन लंबे, पेट बड़ा और गर्दन पर कड़े बाल होते है। यह नस्ल एक वर्ष में करीब 20-25 कि. ग्रा. का हो जाता है और एक बार में चार बच्चे देने की क्षमता होती है। एक वयस्क ‘बांडा’ का वजन औसतन 28-30 कि. ग्रा. तक होती है।

जमीन के अंदर से भोजन प्राप्त कर लेता
खासियत यह है कि सुखाड़ की स्थिति में ‘बांडा’ जमीन के अंदर से भोजन प्राप्त कर लेता है। यह प्रजाति दूर तक दौड़ सकती है तथा सुदूर भ्रमण से जंगलों से भी खाने योग्य पोषण प्राप्त कर लेती है। झारखंड के ग्रामीण परिवेश में ‘बांडा’ नस्ल काफी लोकप्रिय है. जिसकी मुख्य वजह प्रदेश के ग्रामीण परिवेश तथा ग्रामीण आदिवासियों की संस्कृति से जुड़ा होना है। ‘बांडा’ के पालन में लगभग नगण्य खर्च होने की वजह से ग्रामीणों द्वारा इसे काफी पसंद किया जाता है। इस नस्ल को खुली जगह में आसानी से पाला जाता है। जो जंगल के अवशेष तथा कृषि अवशेष के सेवन से उन्नत तरीके से मांस में तब्दील करता है।

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